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भारतीय मध्यम वर्ग के लिए घर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया था मर्फी रेडियो

देहरादून 21 दिसम्बर। मर्फी रेडियो वेलव्यं गार्डन सिटी, इंग्लैण्ड में स्थित रेडियो और टेलीविजन निर्माता कंपनी थी। इसकी स्थापना 1929 में फ्रैंक मर्फी और ई॰जे॰ पॉवर ने की थी। इसके कारखाने इंग्लैंड के हर्टफोर्डशायर शहर के वेल्विन गार्डन सिटी में थे , जहाँ शुरुआत में 100 से कम कर्मचारी थे। मर्फी की आयरलैंड के डबलिन के आइलैंडब्रिज में भी एक विनिर्माण सुविधा थी । 1937 में मर्फी ने कंपनी छोड़ दी और दूसरी कंपनी में काम करने चले गये। उनका 65वर्ष की आयु में 1955 निधन हो गया। इस रेडियो ने भारत में फ़िल्म बर्फी! के कारण खुब नाम कमाया। एक पुराना मर्फी रेडियो अंग्रेज़ी फ़िल्म लाइफ ऑफ़ पाई में भी दिखाया गया है।
मर्फी रेडियो की शुरुआत 1929 में इंग्लैंड में फ्रैंक मर्फी और ई.जे. पॉवर ने की थी, जो अपने आसान इस्तेमाल और भरोसेमंद रेडियो के लिए मशहूर हुआ और WWII में भी काम आया। भारत में इसने अपने प्रतिष्ठित ‘मर्फी बेबी’ विज्ञापन (मर्फी मुन्ना) और ‘बर्फी!’ फिल्म के कारण लोकप्रियता पाई, जहाँ रेडियो घर की पहचान बन गया और शर्मिला टैगोर व मोहम्मद रफी जैसे सितारों ने इसका प्रचार किया, जिससे यह भारतीय घरों का एक अहम हिस्सा बन गया, भले ही बाद में कंपनी को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मर्फी रेडियो की स्थापना 1929 में फ्रैंक मर्फी और ई.जे. पॉवर ने इंग्लैंड के वेलविन गार्डन सिटी में की थी। उनका लक्ष्य ऐसे रेडियो बनाना था जो परिवार के सभी सदस्य आसानी से इस्तेमाल कर सकें, सस्ते हों और भरोसेमंद हों. मर्फी पहला ब्रिटिश रेडियो था जिसने ट्यूनिंग स्केल पर स्टेशन के नाम और ऑटोमैटिक ट्यूनिंग करेक्शन जैसी सुविधाएँ दीं. युद्ध के दौरान, कंपनी ने ब्रिटिश सशस्त्र बलों के लिए रेडियो सेट बनाए। युद्ध के बाद, उन्होंने नौसेना के लिए सेट बनाए और 1950 के दशक में ब्रिटिश सेना के लिए मैनपैक ट्रांसीवर का भी उत्पादन किया.फ्रैंक मर्फी ने 1937 में कंपनी छोड़ दी और अपनी अलग कंपनी ‘एफएम रेडियो’ शुरू की। भारत में मर्फी रेडियो ने एक प्रतिष्ठित ब्रांड के रूप में अपनी पहचान बनाई, खासकर अपने प्यारे बच्चे (मर्फी मुन्ना) और जुगलबंदी विज्ञापनों के कारण. यह बच्चा जो रेडियो के पास बैठा होता था, वह भारत के घरों में रेडियो का पर्याय बन गया और ‘मर्फी घर-घर की रौनक’ जैसे जिंगल्स बहुत लोकप्रिय हुए। शर्मिला टैगोर जैसी अभिनेत्रियों ने भी इसके प्रिंट विज्ञापनों में काम किया, जिससे इसकी लोकप्रियता और बढ़ी। यह केवल एक उपकरण नहीं, बल्कि भारतीय मध्यम वर्ग के लिए घर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया, जिससे लोग संगीत और समाचार सुनते थे. 1950 के दशक के अंत तक, मर्फी को उद्योग की अन्य कंपनियों की तरह व्यापारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 1962 में, द रैंक ऑर्गनाइज़ेशन (The Rank Organisation) ने मर्फी का अधिग्रहण कर लिया और इसे बुश (Bush) रेडियो के साथ मिला दिया.ब्रांड ‘मर्फी’ आज भी लाइसेंसधारी के रूप में मौजूद है, लेकिन भारत में इसकी असली पहचान 1960-70 के दशक के पुराने विंटेज रेडियो और ‘बर्फी!’ जैसी फिल्मों (जैसे 2012 की ‘बर्फी!’) के माध्यम से जीवित है, जो इसकी विरासत को दर्शाती हैं।

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