25.8 C
Dehradun
Monday, September 8, 2025
Advertisement
spot_img

संपूर्ण सृष्टि पर पड़ता ग्रहण का प्रभाव : स्वामी चिदानन्द सरस्वती

ऋषिकेश, 7 सितम्बर। भारतीय संस्कृति, विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध संस्कृतियों में से एक है, जो जीवन जीने की दृष्टि, मूल्य प्रणाली और सामाजिक एकता का मार्गदर्शन करती है। यही संस्कृति हमें संदेश देती है कि पितृपक्ष एक धार्मिक अनुष्ठान के साथ कृतज्ञता, संस्कार और आत्मबोध का पर्व भी है। परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी ने कहा श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति आभार और ऋण-चुकाने का अवसर हैं। परिवार केवल रक्त-संबंध नहीं, बल्कि संस्कारों और मूल्यों की धारा है। पितृपक्ष हमें संदेश देता है कि जड़ों से जुड़े बिना जीवन वृक्ष फल-फूल नहीं सकता। भारतीय शास्त्रों के अनुसार, पितृपक्ष के 16 दिनों में किए गए श्राद्ध व तर्पण से पितर प्रसन्न होते हैं और संतानों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि हम केवल वर्तमान का हिस्सा नहीं, बल्कि अतीत और भविष्य की शाश्वत कड़ी हैं। स्वामी जी ने युवाओं से आह्वान किया कि आधुनिकता और तकनीकी युग में भी वे परिवार की परंपराओं और मूल्यों से जुड़े रहें। उन्होंने कहा कि यदि हम पितरों को भूल जाएँ तो यह वैसा ही होगा जैसे वृक्ष अपनी जड़ों को भूल जाए। पितृपक्ष हमें संदेश देता है कि मृत्यु अंत नहीं, आत्मा अमर है और पूर्वजों का आशीर्वाद हर पीढ़ी के जीवन में प्रवाहित होता रहता है। स्वामी जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति में परिवार, संस्कृति की आधारशिला और चरित्र निर्माण की पाठशाला है। परिवार ही वह धारा है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कारों, मूल्यों और आध्यात्मिक गहराई को प्रवाहित करती है। पितृपक्ष जैसे पर्व इस धारा को शाश्वत बनाए रखते हैं और राष्ट्र को समृद्ध व सशक्त बनाते हैं। भाद्रपद पूर्णिमा पर पितृपक्ष का आरंभ चंद्रग्रहण के साथ हो रहा है। यह संयोग केवल खगोलीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय शास्त्रों ने ग्रहण को केवल वैज्ञानिक घटना नहीं, बल्कि चेतना और प्रकृति पर विशेष प्रभाव डालने वाला क्षण माना है। आयुर्वेद यह मानता है कि ग्रहण के समय शरीर की पाचन-शक्ति और ऊर्जा संतुलन प्रभावित होते हैं। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि चंद्रमा का सीधा संबंध हमारे शरीर के जल-तत्व से है। जब चंद्रमा की किरणें आवृत होती हैं तो शरीर के भीतर सूक्ष्म परिवर्तन होते हैं। उपवास और ध्यान से न केवल शरीर शुद्ध होता है बल्कि मन भी स्थिर होता है। ग्रहण का प्रभाव केवल शरीर तक सीमित नहीं रहता, बल्कि संपूर्ण सृष्टि पर पड़ता है। समुद्र में ज्वार-भाटा की तीव्रता इसका स्पष्ट उदाहरण है। वातावरण में ऊर्जा-तरंगों का उतार-चढ़ाव भी ग्रहण के समय देखा जा सकता है। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि यह वह क्षण होता है जब पृथ्वी की धड़कनें अलग ढंग से चलती हैं। यही कारण है कि ग्रहण काल को साधना, जप और प्रार्थना के लिए उपयुक्त माना गया है। चंद्रमा को वेदों और उपनिषदों में मन का अधिपति कहा गया है। ग्रहण के समय जब चंद्रमा पर छाया पड़ती है, तब व्यक्ति का मन भी अस्थिरता, भावुकता या उदासी का अनुभव कर सकता है और यही समय साधना और ध्यान के द्वारा मन को गहराई में ले जाया जा सकता है। प्राचीन परंपरा के अनुसार ग्रहण के समय मंत्र-जप और ध्यान का फल अनेक गुना बढ़ जाता है। ग्रहण हमें संदेश देता है कि अंधकार स्थायी नहीं होता। जैसे चंद्रमा कुछ समय के लिए छाया में चला जाता है और पुनः अपनी दीप्ति से जगमगा उठता है, वैसे ही जीवन में दुःख और बाधाएँ क्षणिक हैं। आत्मा की ज्योति शाश्वत है, जिस पर कोई छाया स्थायी रूप से नहीं पड़ सकती। ग्रहण इस सत्य की अनुभूति कराता है कि जीवन का उद्देश्य केवल परिस्थितियों से जूझना नहीं, बल्कि आत्मा की अमरता को पहचानना है। भाद्रपद पूर्णिमा पर पितृपक्ष और चंद्रग्रहण का मिलन हमें शरीर की शुद्धि, मन की स्थिरता और आत्मा की जागृति का अवसर देता है। यह हमें संदेश देते है कि जैसे ग्रहण का अंधकार क्षणिक है और प्रकाश शाश्वत, वैसे ही जीवन की कठिनाइयाँ अस्थायी हैं और आत्मा की ज्योति अमर है। इस विशेष अवसर पर उपवास, मंत्र-जप और पितरों का स्मरण करके हम अपनी जड़ों से गहराई से जुड़ सकते हैं और जीवन को नई ऊर्जा, संतुलन और आध्यात्मिकता से भर सकते हैं।

 

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

22,024FansLike
0FollowersFollow
0SubscribersSubscribe

Latest Articles

- Advertisement -spot_img
error: Content is protected !!